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Mirza Ghalib
 
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* कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मु&# *
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से 
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से 

ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है 
कि जितना खैंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से 

वो बद-ख़ू, और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़्तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझ से 

उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवानी है 
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझ से 

सँभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी, क्या क़यामत है 
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से 

तकल्लुफ़ बर-तरफ़, नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन 
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से 

हुए हैं पाँव ही पहले नवर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी 
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझ से 

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र "ग़ालिब"
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से
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