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Mirza Ghalib
 
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* उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया कि *
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये 
बैठा रहा अगर्चे इशारे हुआ किये 

दिल ही तो है सियासत-ए-दर्बाँ से डर गया 
मैं और जाऊँ दर से तेरे बिन सदा किये 

रखता फिरूँ हूँ ख़ीर्क़ा-ओ-सज्जादा रहन-ए-मय 
मुद्दत हुई है दावत-ए-आब-ओ-हवा किये 

बेसर्फ़ा ही गुज़रती है, हो गर्चे उम्र-ए-ख़िज़्र 
हज़रत भी कल कहेंगे कि हम क्या किया किये 

मक़दूर हो तो ख़ाक से पूछूँ के अए लईम 
तूने वो गंज हाये गिराँमाया क्या किये 

किस रोज़ तोहमतें न तराशा किये अदू 
किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किये 

सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू 
देने लगा है बोसे बग़ैर इल्तिजा किये 

ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं 
भूले से उस ने सैकड़ों वादे-वफ़ा किये 

"ग़ालिब" तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या 
माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये
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